खोज चल अब आज खुद को,
चल थोड़ा जोर लगा,
अगर नाखुश है दुनिया के नाम से,
तो चल खुद ही अपना नाम बता।
कौन है? क्यूँ है?
ये समाज से क्या पूछे तू?
जिन चार लोगों से समाज बना,
उन्हें खुद अपना नहीं पता।
अरे घर उनके भी कच्चे हैं,
सपने उनके भी सच्चे हैं,
पर वो खुद को ना खोज सके,
शायद इसीलिए कहीं अटके हैं।
पसंद क्या है तुझे?
किससे तुझे थोड़ी नाराजगी है?
अरे क्या है तेरे मन में?
क्या होने को तेरा दिल राजी है?
ना वो ना कह जो तुझे सुनाया है,
वो ना सोच जो बाताया है,
खुश तू ऐसे होगा ना,
बिन खुश कौन जी पाया है।
चल देख रंगों को,
देख कितने सारे हैं,
सोच कैसा होता अगर,
एक से सब होते,
रंगीन दुनिया में तू क्यूँ सब जैसा है,
खोज के देख खुद को,
क्या पता तेरा रंग अनोखा है।
जब कुसुम भी छोर कीचड़,
खिल पानी में सकता है,
अपने मन से सच्चा हो कर,
तू भी भीड़ बदल सकता है।
इतिहास जाने की सब ना होते अपने लिए,
थोड़ा कठिन है झुंड से अलग चलना,
पर शायद यही ठीक हो अपने लिए,
हाँ थोड़ा तो ज़ज्बा दिखाना होगा,
हिम्मत हल्की मांगे तुझसे तू ही,
अरे खुद के लिए इतना तो करना होगा,
कहीं अफसोस ना करे तुझसे तू ही।
फिर थोड़ा हम भी सर उठा के जिएंगे,
हम भी कुछ खास बनेंगे,
मुश्किल तो होता ही है,
पर खुद को जरूर पायेंगे।
बन बाज थोड़ा ऊंचा उड़े,
या बन मछली गहराई से लड़ें,
बन कलाकार कहानियां सुनायें,
या बन फकीर सूफ़ी गाएँ।
तो फिर चल खोज तू खुद को आज,
पूछ ज़रा खुद से, ये जो तुझे दुनिया ने बनाया है,
तू खुश है क्या उससे?
या जिज्ञासा है कि कुछ और दूर चल के देखते हैं,
क्या पता हम कुछ और हों,
हम कुछ और ही बन के रहते हैं।