और फिर एक किताब सी ही तो हो तुम,
ज़रा सी हवा में बेचैन हो उठती हो,
दुनिया भर की बातें हैं तुम्हारे मन में,
पर बिना पूछे तुम कुछ ना कहती हो।
और ज्ञान भी ऐसा है कि विद्वान शर्मा जायें,
पर अपनी ताकत जानती हो,
जिसमें हो नम्रता तुम्हें पढ़ने की,
उसी से रूबरू करती हो।
और फिर शायरी सी ही तो हो तुम,
काग़ज पे क्या खूब उतरती हो,
थाम कलम बस एतबार कर दे कोई,
तुम अपने आप ही महफिल सजाती हो।
शायर खामख्वाह ही वाहवाही ले जातें हैं,
असली अदाकारा तो तुम हो,
पर ये भी नजाकत है तुम्हारी,
जिसकी जुबां पे उतर जाओ,
इतिहास में नाम लिखा जातें हैं।
और फिर भक्ति सी ही तो हो तुम,
मन में हो तो विश्वास बन जाती हो,
ना हो तो भी ठीक है,
पर अगर हो तो चंदन सी महक जाती हो।
कोई फूल भी छू दो तुम,
वो पूजा बन जाती है,
तुम आंख मूंद लो तो,
साधना बन जाती है।
और फिर एक औरत हो तुम,
तुम्हारे होने भर से तो खूबसूरती है,
तुम्हारा चेहरा हो ना हो,
तुम्हारी रूह भर ही काफी है,
तुम हो तो बड़ी मासूम,
पर कौम तुम्हारी बड़ी मजबूत है,
तुम आंचल फैला के प्यार लुटाओ,
तुम पैर बढ़ा के दुनिया ही नाप जाती हो।
विनम्र बहुत हो,
तभी आदमी है,
क्यूंकि आखिर औरत हो तुम,
अकेले भी राज़ करना जानती हो।