उस घर के बरामदे में मोगरे आज भी खिले थे,
गमलो में ताज़ा पानी भी दिया था।
दरवाज़े पर पहुँचे तो वही “शुभ लाभ” लटके थे,
और कुमकुम से सजा स्वास्तिक आज भी वहीं था।
उस बैठक में तस्वीर खेलते परिवार की,
और भीनी भीनी खुशबू चंदन की अगरबत्ती की।
आज भी रसोई में कुछ चूल्हे पे चढ़ा था,
खीर या हलवा पता नहीं,
पर कुछ तो स्वादिष्ट बना था।
घर के कोने में मंदिर,
मानो इंतज़ार ही कर रहा था,
यहीं से रवाना हुए थे, फिर वहीं लौटेंगे,
इस बात से थोड़ा गर्वित था।
बिंदियाँ जो माथे पे सजती है,
माँ आज कहीं से आ कर
अभी भी शीशे के ऊपर सजाती थी,
ऐनक जो बिस्तर के बगल में सोता था,
पापा की ऐनक आज भी वहीं रखी जाती थी।
कुछ एकाध गुलाब जामुन की चोरी,
आज भी छोटा भाई करता है,
कद काठी जैसी भी हो जाये,
आज भी हक से लड़ता है।
लौट कर परदेस से जो भी आए,
भर कर झोली लाये या खाली हाथ आए,
अपना घर ठीक वैसे ही गले लगाता है,
रोज़ बढ़ते आपको देखे ना,
फिर भी आपको पहचानता है।
ख़ुद ही स्वागत करता है,
आपसे हस कर कहता है,
आओ अब बैठो,
ये घर जैसा छोड़ोगे, वैसा ही रहता है।