हर गली गलियारे में, मंदिर में, पाठशालाओं में,
राम की जय जय कार है, माँ सीता की जय कार है।
पढ़ी रामायण सबने, विस्तार में उसका बखान है,
पर एक सवाल है मेरे मन में, असली रावन कौन है।
वो दशानन? वो दानव? वो लंकेश जिसने किए युद्ध हजार थे?
वो शक्तीशाली महाबली? जिसके अधीन स्वयं काल थे?
हां हरा उसी ने था माँ सीता को,
पर काट जटायु के दी चुनौती सीधा राम को।
हां कहा उसी ने था, लगाओ आग इस वानर की पुंछ पे,
अड़ा जो हट पर अपने, सारी सुध बुध भूल के।
नाम उसका रावण था, पर कर्म उसके नेक भी थे,
परम भक्त महाकाल का, महा ज्ञानी सब वेद के।
हां युद्ध किया उसने मगर, लड़ा वो पूरे अभिमान से,
खोए पुत्र पर राजा बन कर आया मरने प्रभु के हाथ से।
माँ सीता हुई राम की, ये कथा यहीं तक सुन्दर थी,
मैं सोची अब नहीं कोई रावन है, पर रावन की कथा तो अब शुरू हुई।
क्या कहना है तुम्हारा उस प्रजा का,
जो कहने को तो मानव थे,
पर सोच मलिन थी इतनी,
इस बार प्रभु भी कुछ कर न सके।
तुम शीश काट दोगे रावन का,
वो तो दानव रूपी कष्ट है।
तुम कैसे रोको उन इंसानों को,
जो दिखें भोले, पर जिनकी बुद्धि भ्रष्ट है।
त्रेता युग में इन रावन रूपी लोगों ने
माँ सीता को विलीन होने विवश किया।
जो जीवन सुन्दर निर्मल था,
अपनी छोटी सोच से उसे सुख हीन किया।
हरा आए थे रावन एक,
पर इतने सारे रावन हरा न सके,
पा ली थी सीता जो,
इस प्रजा के आगे राम उन्हें बचा ना सके।
इस कल युग में यही रावन फिर से हैं,
कोई मर्द में तो कोई औरत में,
चारो दिशाओं में ये पनपे हैं।
इन्हें सुध नहीं सही गलत की,
समाज के झूठे ठेकेदार हैं,
कहने को तो हैं ये मनुष्य ही,
पर अपनी बहु बेटी के दुश्मन ये तैयार हैं।
है सोच दूषित इनकी, ना नजरिए में सुधार है,
ज्ञान है इनका खोखला, पर प्रश्नन हर सीता पे हजार हैं।
मैं अपना कहूँ, हैं असली रावन यही,
क्यूंकि शीश अगर काट भी दो,
दूषित सोच पनपती तेजी से बड़ी।
तुम हरा दोगे राक्षस को,
तुम जीत लो सैंकड़ों लंका।
पर जो मन अगर कलंकित हो,
होने दो तुम अनचाही शंका।
फिर खो दोगे सब कुछ पल में,
बचाओ खुद को घनघोर पाप से।
लो सीता जैसा प्रण मजबूत,
हो अन्तर तुम में और रावन में।