घर की याद जनाब ऐसे नहीं आती,
थोड़ा दूर जाना पड़ता है घर से,
सजे सितारों से आसमाँ,
यूँही प्यारे नहीं लगते,
पल सुहाने याद करने होते हैं घर के।
त्योहारों में खूब खीर खाई होगी तुमने,
स्वाद तभी आता है जब वो नहीं मिलती।
माँ की अलमारी से चुरा के कोई दुपट्टा,
जो सजते थे, अरे खूब तो तभी लगते थे,
अब मेले चाहे दुनिया कितने दिखा दे,
वो बात देखो अब नहीं जमती।
हाँ बटुआ भारी तो है,
पर पापा जो सौ रुपये देते थे,
देखने को पंडाल,
अरे अमीर तो तभी थे,
और हैरत की बात तो ये है,
वो सौ रुपये कभी कम ना पड़े,
स्वाद उसी भंडारे के, हम ढूंढते रहे,
मिलता कहाँ वो, शायद वैसे भूखे ही ना रहे।
वो भाई बहन, अरे क्या हम झगड़े हैं,
आधा आधा लड्डू भी, बड़ी बारीकी से बांटे हैं,
अब हाथ में भर डिब्बा लड्डू का है,
पर खाने का जी नहीं,
अरे कोई तो आ के कहे,
देखो माँ दीदी मुझसे ज़्यादा ली।
दुनिया भर के रंग देख तो लेते हैं,
पर वो रंगोली, उससे रंगीन नहीं कुछ दिखते हैं,
माँ उठाती थी जल्दी, देखो आज पूजा है,
रो रो कुछ देर और सोने को माँ से विनती करते थे,
आज आंख खुली है पहले से,
पर वो उल्लास है कहाँ,
घर पर जैसे बीते पर्व,
वो बात कहीं नहीं है यहां,
आदमी का जीवन अर्थों को ढूंढते बीत जाता है,
आराम का अर्थ तो घर है, घर छोर के जान पाता है,
पर है तो ये मजबूरी ही, की सब छोर एक कोने में हम बैठे हैं,
कुछ और भी पा लें, बस इसी सोच में अटके हैं,
हाँ तुम्हें लगता होगा, हम बड़े बेचारे हैं,
सात समंदर पार तो हैं, पर परिस्थिति के मारे हैं,
पर कह देती हूं बात एक,
तज कर सुकून हम आए हैं,
उसी घर की लौ जलती रहे,
इसीलिये दुनिया से भिड़ने आए हैं।
बहुत से सयाने लोग भी ना समझे,
पर हम घर का मोल समझे हैं,
उसका सम्मान कर पाए हैं,
जान गए हैं बात एक, जो छोटी है पर गहरी भी,
बड़ी इमारतों में कुछ ना है,
जहां वो घर के प्यारे लोग मिलें,
अपना बसेरा बस उतना है।