क्यूँ लिखती हो तुम

क्यूँ लिखती हो तुम,
इसमें रखा क्या है।
यह दुनिया है कैसी, लिख कर करना क्या है,
दो पल इस जहां से दूर,
रोजमर्रा से हट कर,
खुद को बहलाने सा है,
मन की बातें जो कहना है मुश्किल,
दो शब्दों से उनको समझाने सा है।
बिन मांगे जो पाठ जिंदगी ने दिए,
बिन दुआ के कुछ मीठे फल भी मिले,
शुक्रिया कहना हो जो, ये जरिए सा है।

मन और कलम का रिश्ता ये,
सुन्दर कितना है,
चेहरा नहीं है कोई, पर प्यारा कितना है,
बिन सवाल ये कलम सुनती रहती मुझे
ना टोक ना रोक, बस लिखती रहती ये,
सहला देती है घाव कोई पुराना,
सुलझा देती है उलझन कोई सयाना
इंसान न है, पर ज़ज्बात इंसानों से ज़्यादा,
ना कोई दोगलापन ना गलत इरादा।

बस इसलिए ही लिखती हूँ,
इस काग़ज की दुनिया में जीती हूँ।
कहने को शायद कला है लिखना,
पर खुद से रूबरू हो सकूं,
बस इसीलिए लिखती हूँ।

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