खुल के हसते हो क्या?

खुल के हसते हो क्या?
मन से खिलते हो क्या?
पूछा फूलों से जिन्हें खिले अब समय हुआ,
कलियां थी कभी पर काम खत्म हुआ,
फूल से बेल होने का समय हुआ।
बड़े प्यार से समेटा था पत्तों ने हमें,
हजार आँधी तूफान आए,
बड़े बारीकी से थामा था हमें,
हम उन पत्तों की आड़ से देखते थे,
सूरज की किरनों से खेलते थे,
हमें लगता हम जाने क्यूँ कैद हैं,
ये चारों ओर के पत्ते बैद हैं,
हम देखें उन कलियों को जो खिल के फूल हुए,
मन परेशान था कोई ऐसी हवा हमें भी छुए,
कली से हम भी पुष्प बन जायें,
महके, सुंदर रंग आ जायें।

और फिर एक पहर बसंत आया,
थोड़ी बदरी, थोड़ी धूप, कुछ ऐसा एक समा आया।
जो पत्ते सींच रहे थे हमें,
रस्ता उन्होंने ही दिखाया,
बदली करवट, नम आंखें ओस से,
खिलने का रुख बाताया।
गले लग के उनसे हम आगे बढ़े,
कली से फूल हम खिल गये,
खुले आकाश के नीचे साँस ली,
और फिर जिम्मेदारी से भर गए,
आजादी एक दिन की भी नहीं थी,
इसी दिन के लिए सोचो हमारी जिद थी।
भंवरे आए, लेने हमारे से कल के पेड़ो के बीज़,
पक्षी आए, लेने खुशबू, नाजुक पंखुरी,
ताकि पायें वो अपनी दुनिया सींच,
पवन भी कभी मंद कभी तेज़ था,
हम ढूंढते सहारा पत्तों का पर अब वो ना नसीब था,
कुछ साथी झेल पाए,
कुछ यूं ही ढेर हुए,
हम फूल तो थे, पर नाजुक नहीं,
हम ठोस हुए,
वो पत्ते, कर के अपना काम,
धरती को चूम गये,
हमारी पंखुरी बचाते भी कैसे,
अब हम बड़े हुए।

तो अब जब कुछ माह बीत गए हैं,
हमें भी फल से फूल होने का इंतजार है,
आजादी आजाद होने का नहीं,
अपना अपना काम करने का प्रयास है।
तो खुल के तो कलियाँ ही हस पाती हैं,
जो पत्तों की छाँव में थोड़ी सी दुनिया देख पाती हैं,
जो पूरी दुनिया देख ले, वो हस पाता है कहाँ,
मंद मुस्करा दे बस, उससे ज्यादा वक्त मिल पाता है कहाँ।

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